कई बार ऐसा लगता है कि जिंदगी कितनी आसान है, सबसे प्यार करो, सबसे मिलजुल कर रहो, किसी को दुख मत दो, मीठा बोलो, सम्मान दो, क्रोध मत करो, किसी से भी नाराज नही होओ आदि आदि।
सोचने में बहुत आसान है, और चाहते भी हैं लेकिन ये जो भावनाये हैं, जब इनको ठेस पहुँचती है तो सामने कौन है वो भी दिखाई नही देता। बस जैसा व्यवहार सामने वाला करता है उसका ही प्रतिरूप बन जाते हैं। वो सभी अच्छे संस्कार धरे के धरे रह जाते हैं। इसलिए शायद दुनिया मे लोगो के पास या शास्त्रों में ज्ञान तो बहुत है परंतु उसे धारण करने की शक्ति किसी के पास नही, वरना आज यही संसार सुखधाम हो सकता था।
ऐसा भी नही है कि ये असंभव है, इसका उपाय तो केवल ये ही समझ मे आता है कि जो इन अच्छे संस्कारो का दाता है, उससे संबंध जोड़ कर पहले सारी भावनाएं उससे जोड़े ताकि कोई भी शिकायत न रहे। सच मे मनुष्य दे ही क्या सकता है, जो उसके पास है।
और हम क्या चाहते हैं, प्यार मिले, शांति मिले, सुख मिले। हम क्या सभी यही चाहते हैं। अब सवाल ये है कि कोई देगा कैसे जब वो उसके पास होगा। सभी अंदर से खाली हैं। सब लोग मांग रहे हैं। तो ये देने वाला कौन?
जब सब तरफ से हार जाते हैं तब नज़र सिर्फ ऊपर की ओर जाती है कि हे भगवान.. तू ही मुझे ये सब दे। और सच मे जब पूरी दुनिया को भूल हम उसे याद करते तो वो सच में अपने पिता या दाता होने का फर्ज भी निभाता है। एक पल के लिए ऐसा लगता जैसे बस! अब सब मिल गया.. कुछ भी नही चाहिए। यही सर्व आनंद की अनुभूति है।
बस अब हर पल, इसी अनुभूति में रहने का अभ्यास करना है।
बस अब हर पल, इसी अनुभूति में रहने का अभ्यास करना है।
ओम शांति